Wednesday, 1 April 2020

शिष्यों की परीक्षा लेना

शिष्यों की परीक्षा लेना’’
बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर जी द्वारा अनेकों अनहोनी लीलाएँ करने से प्रभावित होकर  चौंसठ लाख शिष्य बने थे। परमेश्वर तो भूत-भविष्य तथा वर्तमान की जानते हैं। उनको पता
था कि ये सब चमत्कार देखकर तथा इनको मेरे आशीर्वाद से हुए भौतिक लाभों के कारण
मेरी जय-जयकार कर रहे हैं।  
परंतु
देखा-देखी कहते अवश्य हैं कि कबीर जी हमारे सद्गुरू जी तो स्वयं परमात्मा आए हैं।

अपने लाभ भी बताते थे। एक दिन परमेश्वर कबीर जी ने शिष्यों की परीक्षा लेनी चाही कि
देखूं तो कितने ज्ञान को समझे हैं। यदि इनको विश्वास ही नहीं है तो ये मोक्ष के अधिकारी
नहीं हैं। ये तो मेरे सिर पर व्यर्थ का भार हैं। यह विचार करके एक योजना बनाई। अपने
परम शिष्य रविदास से कहा कि एक हाथी किराए पर लाओ।
काशी नगर में एक सुंदर वैश्या थी। उसके मकान से थोड़ी दूरी पर किसी कबीर जी
के भक्त का मकान था।
कबीर जी उसके आँगन में रात्रि के समय सत्संग कर रहे थे। उस
दिन उस वैश्या के पास भी ग्राहक नहीं थे। सत्संग के वचन सुनने के लिए वह अपने मकान
की छत पर कुर्सी लेकर बैठ गई। पूर्ण रात्रि सत्संग सुना और उठकर सत्संग स्थल पर गई
तथा परमात्मा कबीर जी को अपना परिचय दिया तथा कहा कि गुरू जी! क्या मेरे जैसी
पापिनी का भी उद्धार हो सकता है। मैंने अपने जीवन में प्रथम बार आत्म कल्याण की बातें
सुनी हैं। अब मेरे पास दो ही विकल्प हैं कि या तो मेरा कल्याण हो, या मैं आत्महत्या करके
पापों का प्रायश्चित करूँ।
 परमात्मा कबीर जी ने कहा, बेटी! आत्महत्या करना महापाप है।

भक्ति करने से सर्व पाप परमात्मा नष्ट कर देता है। आप मेरे से उपदेश लेकर साधना करो
और भविष्य में पापों से बचकर रहना। उस बहन ने प्रतिज्ञा की और परमात्मा कबीर जी
से दीक्षा लेकर भक्ति करने लगी तथा जहाँ भी प्रभु कबीर जी सत्संग करते, वहीं सत्संग
सुनने जाने लगी। जिस कारण से कबीर जी के भक्तों को उसका सत्संग में आना अच्छा
नहीं लगता था। वे उस लड़की को कहते थे कि तेरे कारण गुरू जी की बदनामी होती है।
तू सत्संग में मत आया कर। तू सबसे आगे गुरू जी के पास बैठती है, वहाँ ना बैठा कर।
लड़की ने ये बातें गुरू कबीर जी को बताई और फूट-फूटकर रोने लगी। 
परमेश्वर जी ने
कहा कि बेटी! आप सत्संग में आया करो। 

कबीर जी ने सत्संग वचनों द्वारा स्पष्ट किया कि
मैला कपड़ा साबुन और पानी से दूर रहकर निर्मल कैसे हो सकता है? इसी प्रकार पापी
व्यक्ति सत्संग से तथा गुरू से दूर रहकर आत्म कल्याण कैसे करा सकता है? भक्त वैश्या
तथा रोगी से नफरत नहीं करते, सम्मान करते हैं। उसको ज्ञान चर्चा द्वारा मोक्ष प्राप्ति की
प्रेरणा करते हैं। परमात्मा कबीर जी के बार-बार समझाने पर भी भक्तजन उस लड़की को
सत्संग से मना करते रहे तथा बहाना करते थे कि तेरे कारण गुरू जी काशी में बदनाम हो
गए हैं। काशी के व्यक्ति हमें बार-बार कहते हैं कि तुम्हारे गुरू जी के पास वैश्या भी जाती
एक दिन कबीर परमेश्वर जी ने उस लड़की से कहा कि बेटी! आप मेरे साथ हाथी
पर बैठकर चलोगी। लड़की ने कहा, जो आज्ञा गुरूदेव! अगले दिन सुबह लगभग 10रू00
बजे हाथी के ऊपर तीनों सवार होकर काशी नगर के मुख्य बाजार में से गुजरने लगे। संत
रविदास जी हाथी को चला रहे थे। लड़की रविदास जी के पीछे कबीर जी के आगे यानि  दोनों के बीच में बैठी थी। कबीर जी ने एक बोतल में गंगा का पानी भर लिया। उस बोतल
को मुख से लगाकर घूंट-घूंटकर पी रहे थे। लोगों को लगा कि कबीर जी शराब पी रहे हैं।
शराब के नशे में वैश्या को सरेआम बाजार में लिये घूम रहे हैं। काशी के व्यक्ति एक-दूसरे
को बता रहे हैं कि देखो! बड़े-बड़े उपदेश दिया करता कबीर जुलाहा, आज इसकी
पोल-पट्टी खुल गई है। ये लोग सत्संग के बहाने ऐसे कर्म करते हैं। काशी के व्यक्ति कबीर
जी के शिष्यों को पकड़-पकड़ लाकर दिखा 
रहे थे कि देख तुम्हारे परमात्मा की करतूत।
शराब पी रहे हैं, वैश्या को लिए सरेआम घूम रहा है। यह लीला देखकर वे चौंसठ लाख
नकली शिष्य कबीर जी को त्यागकर चले गए। पहले वाली साधना करने लगे। लोक-लाज
में फँसकर गुरू विमुख हो गए।
परमात्मा कबीर जी विशेषकर ऐसी लीला उस समय किया करते जिस समय दिल्ली
का सम्राट सिकंदर लोधी काशी नगरी में आया हो। उस समय सिकंदर लोधी राजा काशी
में उपस्थित था। काजी-पंडितों ने राजा को शिकायत कर दी कि कबीर जुलाहे ने जुल्म कर
दिया। शर्म-लाज समाप्त करके सरेआम वैश्या के साथ हाथी के ऊपर गलत कार्य कर रहा
था। शराब पी रहा है। राजा ने तुरंत पकड़कर गंगा में डुबोकर मारने का आदेश दिया।
अपने हाथों से राजा सिकंदर ने कबीर परमेश्वर जी के हाथों में हथकड़ी तथा पैरों में बेड़ी
तथा गले में तोक लगाई। नौका में बैठाकर गंगा दरिया के मध्य में ले जाकर दरिया में
सिपाहियों ने पटक दिया। हथकड़ी, बेड़ी तथा तोक अपने आप टूटकर जल में गिर गई।
परमात्मा जल पर पद्म आसन लगाकर बैठ गए। नीचे से गंगा जल चक्कर काटता हुआ
बह रहा था। परमात्मा जल के ऊपर आराम से बैठे थे। कुछ समय उपरांत परमात्मा कबीर
जी गंगा के किनारे आ गए। सिपाहियों ने शेखतकी के आदेश से कबीर जी को पकड़कर
नौका में बैठाकर कबीर परमात्मा के पैरों तथा कमर पर भारी पत्थर बाँधकर हाथ पीछे को
रस्सी से बाँधकर गंगा दरिया के मध्य में फैंक दिया। रस्से टूट गए। पत्थर जल में डूब गए।
परमेश्वर कबीर जी जल के ऊपर बैठे रह गए। जब देखा 
कि कबीर गंगा दरिया में डूबा
नहीं तो क्रोधित होकर शेखतकी के कहने से राजा ने तोब के गोले मारने का आदेश दे
दिया। पहले कबीर जी को पत्थर मारे, गोली मारी, तीर मारे। अंत में तोब के गोले चार
पहर यानि बारह घण्टे तक कबीर जी के ऊपर मारे। कोई तो वहीं किनारे पर गिर जाता,
कोई दूसरे किनारे पर जाकर गिरता, कोई दूर तालाब में जाकर गिरता। एक भी गोला,
पत्थर, बंदूक की गोली या तीर परमेश्वर कबीर जी के आसपास भी नहीं गया। इतना कुछ
देखकर भी काशी के व्यक्ति परमेश्वर को नहीं पहचान पाए। 
तब परमेश्वर कबीर जी ने
देखा कि ये तो अक्ल के अँधे हैं। उसी समय गंगा के जल में समा गए और अपने भक्त
रविदास जी के घर प्रकट हो गए। दर्शकों को विश्वास हो गया कि कबीर जुलाहा गंगा जल
में डूबकर मर गया है। उसके ऊपर रेत व रेग (गारा) जम गई होगी। सब खुशी मनाते हुए
नाचते-कूदते हुए नगर को चल पड़े। शेखतकी अपनी मण्डली के साथ संत रविदास जी के
घर यह बताने के लिए गया कि जिस कबीर जी को तुम परमात्मा कहते थे, वह डूब गया
है, मर गया है। संत रविदास जी के घर पर जाकर देखा तो कबीर जी इकतारा (वाद्य यंत्रा)  बजा-बजाकर शब्द गा रहे थे। शेखतकी की तो माँ सी मर गई। 
राजा सिकंदर के पास
जाकर बताया कि वह आँखें बचाकर भाग गया है। रविदास के घर बैठा है।
यह सुनकर
बादशाह सिंकदर लोधी संत रविदास जी की कुटी पर गया। परमात्मा कबीर जी वहाँ से
अंतर्ध्यान होकर गंगा दरिया के मध्य में जल के ऊपर समाधि लगाकर जैसे जमीन पर बैठते
हैं, ऐसे बैठ गए। रविदास से पूछा कि कबीर जी कहाँ पर हैं? संत रविदास जी ने कहा कि
हे बादशाह जी! वे पूर्ण परमात्मा हैं, वे ही अलख अल्लाह हैं। आप इन्हें पहचानो। वे तो मर्जी
के मालिक हैं। जहाँ चाहें चले जाएँ। मुझे कुछ नहीं पता, कहाँ चले गए? वे तो सबके साथ
रहते हैं। उसी समय किसी ने बताया कि कबीर जी तो गंगा के बीच में बैठे भक्ति कर रहे
हैं। सब व्यक्ति तथा राजा व सिपाही गंगा दरिया के किनारे फिर से गए। राजा ने नौका
भेजकर मल्लाहों के द्वारा संदेश भेजा कि बाहर आएँ। मल्लाहों ने नौका कबीर जी के पास
ले जाकर राजा का आदेश सुनाया कि आपको सिकंदर बादशाह याद कर रहे हैं। आप
चलिए। परमेश्वर कबीर जी उस जहाज (बड़ी नौका) में बैठकर किनारे आए।
राजा सिकंदर ने फिर गिरफ्तार करवाकर हाथ-पैर बाँधकर खूनी हाथी से मरवाने की
आज्ञा कर दी। 
चारों और जनता खड़ी थी। सिकंदर ऊँचे स्थान पर बैठे थे। परमात्मा को
बाँध-जूड़कर पृथ्वी पर डाल रखा था। महावत (हाथी के ड्राइवर) ने हाथी को शराब पिलाई
और कबीर जी को कुचलकर मरवाने के लिए कबीर जी की ओर बढ़ाया। कबीर जी ने
अपने पास एक बब्बर सिंह खड़ा दिखा दिया। वह केवल हाथी को दिखा। हाथी चिंघाड़कर
डर के मारे वापिस भाग गया। महावत को नौकरी का भय सताने लगा। हाथी को भाले
मार-मारकर कबीर जी की ओर ले जाने लगा, परंतु हाथी उल्टा भागे। तब पीलवान
(महावत) को भी शेर खड़ा दिखाई दिया तो डर के मारे उसके हाथ से अंकुश गिर गया।
हाथी भाग गया। परमेश्वर कबीर जी के बंधन टूट गए। कबीर जी खड़े हुए तथा अंगड़ाई
ली तो लंबे बढ़ गए। सिर आसमान को छूआ दिखाई देने लगा। प्रकाशमान शरीर दिखाई
देने लगा। सिकंदर राजा भय से काँपता हुआ परमेश्वर कबीर जी के चरणों में गिर गया।
क्षमा याचना की तथा कहा कि आप परमेश्वर हैं। मेरी जान बख्शो। मेरे से भारी भूल हुई
है। मैं अब आपको पहचान गया हूँ। आप स्वयं अल्लाह पृथ्वी पर आए हो।
परमात्मा कबीर जी सीधे उसी गणिका के घर गए। आंगन में चारपाई पर बैठ गए।
लड़की परमात्मा के चरण दबाने लगी। सतगुरू का पैर अपनी सांथल (टांग) पर रखा था।
उसी समय अर्जुन तथा सर्जुन नाम के दो शिष्य कबीर जी के आए। उनको अन्य मूर्ख शिष्यों
ने बताया कि सतगुरू कबीर जी ने तो बेशर्म काम कर दिया। शराब पीने लगे हैं। वैश्या
को लेकर सरेआम हाथी पर बैठाकर नगर में उत्पात मचाया है। हम तो मुँह दिखाने योग्य
नहीं छोड़े हैं।
अर्जुन तथा सर्जुन के गले उनकी यह बकवाद नहीं उतर रही थी। परंतु अनेकों गुरू
भाई-बहनों द्वारा सुनकर उनके मन में भी दोष आ गया। संत गरीबदास जी के सद्ग्रन्थ के
‘‘सरबंगी साक्षी’’ के अंग में अर्जुन-सर्जुन के विषय में वाणी लिखी हैं जो इस प्रकार हैं :- सरबंगी साक्षी के अंग की वाणी नं. 112.115 :-
गरीब, सुरजन कूं सतगुरू मले, मक्के मदीने मांहि। चौसठ लाख का मेल था, दो बिन सबही जाहिं।।112।।
गरीब, चिंडालीके चौक में, सतगुरू बैठे जाय। चौंसठ लाख गारत गये, दो रहे सतगुरू पाय।।113।।
गरीब, सुरजन अरजन ठाहरे, सतगुरू की प्रतीत। सतगुरू इहां न बैठिये, यौह द्वारा है नीच।।114।।
गरीब, ऊंच नीच में हम रहैं, हाड चाम की देह। सुरजन अरजन समझियो, रखियो शब्द सनेह।।115।।
 सरलार्थ :- अर्जुन तथा सर्जुन दो मुसलमान धर्म के मानने वाले थे। अपने धर्म की
परंपरा का निर्वाह करने मक्का-मदीना की मस्जिद में गए हुए थे। वहाँ परमात्मा कबीर जी
उनको जिंदा बाबा के वेश में मिले थे। ज्ञान चर्चा करके सत्य मार्ग बताया था। वे कबीर
परमात्मा के शिष्य बन गए थे। सतगुरू के आदेशानुसार वे फिर भी मक्का-मदीना या अन्य
मुसलमान धर्म के धार्मिक कार्यक्रमों में जाकर भूलों को राह बताकर कबीर परमेश्वर से दीक्षा
दिलाया करते थे। उस दिन वे बाहर से आए थे। जब सतगुरू कबीर जी को बदनाम वैश्या
के घर देखा तथा लड़की की साथलों पर पैर रखे आँखों देखा तथा गलती कर गए। बोले
कि हे सतगुरू! आप यहाँ न बैठो, यह तो नीच बदनाम औरत का घर है। कबीर परमात्मा
ने कहा कि हे अर्जुन तथा सर्जुन! मैं ऊँच-नीच में सब स्थानों पर रहता हूँ। यह तो हाड-चाम
का शरीर इस लड़की का है। मेरे लिए तो मिट्टी है। हे अर्जुन तथा सर्जुन! समझो। आपको
जो दीक्षा नाम जाप की दे रखी है, उसका जाप करो। पहले तो तुम परमात्मा कहते थे।
आज मुझे शिक्षा दे रहे हो। तुम तो मेरे गुरू बन गए। मोक्ष तो शिष्य बने रहने से होता है।
अब आपके मन में कबीर के प्रति दोष आ गया है। कल्याण असंभव है। दोनों परमात्मा के
लिए घर त्यागकर बचपन से लगे थे। उनको अहसास हुआ कि बड़ी गलती बन गई। तुरंत
चरणों में गिर गए। इस जन्म में मोक्ष की याचना की। परमात्मा ने कहा कि अब आपका
कल्याण मेरे इस रूप से नहीं होगा
 आपके मन में दोष आया है। उन्होंने चरण नहीं छोड़े।
रो-रोकर याचना करते रहे। तब आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा सतगुरू दिल्ली से 30 मील
पश्चिम में एक छोटे-से गाँव में मेरा भक्त जन्मेगा। तब तक तुम इसी शरीर में जीवित
रहोगे। मैं तुम्हें स्वपन में सब मार्गदर्शन करता रहूँगा। उस मेरे भक्त को मैं मिलूँगा। उसे
दीक्षा अधिकार दूँगा। तुम उससे दीक्षा लेकर भक्ति करना। संत गरीबदास जी जब दस वर्ष
के हुए, तब कबीर जी उनको मिले थे। सतलोक दिखाया, वापिस छोड़ा। तब स्वपन में
अर्जुन-सर्जुन को बताया। गाँव व नाम, पिता का नाम सब बताया। उस समय अर्जुन-सर्जुन
हरियाणा प्रान्त के गाँव-हमायुंपुर में एक किसान के घर रहते थे। आयु लगभग 225 वर्ष की
थी। दोनों को एक जैसा स्वपन आया। सुबह एक-दूसरे को बताया। किसान सेवक से पूछा
कि यहाँ कोई छुड़ानी गाँव है। किसान ने बताया कि है। उन्होंने कहा कि आपने इतनी सेवा
की है, आपका अहसान कभी नहीं भूल पाएँगे। कृपया करके हमें छुड़ानी गाँव तक पहुँचा दो।
किसान ने रेहड़ू (छोटी बैलगाड़ी) में बैठाए 
तथा छुड़ानी ले गया। संत गरीबदास दास जी
ने कहा कि आओ अर्जुन-सर्जुन! मेरे को परमात्मा कबीर जी ने सब बता दिया है। दीक्षा लो।
यहीं रहो। भक्ति करो। उन दोनों ने दीक्षा ली और भक्ति की। वहाँ शरीर छोड़ दिया। दोनों
के शरीर जमीन में दबाकर मंढ़ी बनाई गई जो सन् 1940 में भूरी वाले संत ने फुड़वा दी कहा कि यहाँ पर केवल एक यादगार सतगुरू गरीबदास की ही रहेगी। यदि ये दोनों भी
रहेंगी तो भक्त इनकी भी पूजा प्रारम्भ कर देंगे जो गलत हो जाएगा। शिष्य की पूजा नहीं
की जाती।
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